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लेखक- एम बी बलवंत सिंह खन्ना :गाँव की सुबहें अब भी वैसी ही होती हैं — धीमी, शांत, और धूप की नर्म चादर ओढ़े हुए। लेकिन समय का चेहरा बदल चुका है। अब हर आँगन में मोबाइल की घंटियाँ सुनाई देती हैं, और बच्चों के हाथों में खिलौनों की जगह स्क्रीन चमकती है।
उस दिन मैं लंबे समय बाद गाँव लौटी थी। शहर की भीड़भाड़ और भागदौड़ के बीच, कुछ सुकून की तलाश थी। आँगन में मेरी दादी बैठी थीं — वही सादी सूती साड़ी, आँखों पर पुराना चश्मा, और चेहरे पर वही आत्मविश्वासी शांति। उनके पास बैठकर मैंने राहत की साँस ली।
मेरे कंधे पर एक महँगा पर्स टंगा था। नया था, चमकदार भी, ब्रांडेड भी। दादी ने उसे देखा और मुस्कुराईं।
“बड़ी सुन्दर थैली है बिटिया,” उन्होंने कहा, “क्या-क्या रखा है इसमें?”
मैंने हँसते हुए जवाब दिया, “दादी, अब थैली नहीं, पर्स कहते हैं इसे। इसमें मोबाइल है, लिपस्टिक, चाभी, कार्ड, चश्मा… सबकुछ।”
दादी ने धीरे से सिर हिलाया और अपने ब्लाउज के कोने को थोड़ा ऊपर उठाया। उसमें एक छोटी सी जेब लगी थी।
“हमारे ज़माने में ये ही हमारी पर्स होती थी,” उन्होंने कहा। “छोटे सिक्के, कुछ नोट, कभी कभार कोई कागज़। सबकुछ यहीं रहता था, और ज़रूरत भर ही काफी होता था।”
दादी सिर्फ मेरी दादी नहीं थीं। वे उस पूरे समय की पहचान थीं जब महिलाएँ कम संसाधनों में भी पूरी दुनिया को सँभाल लेती थीं।
वे शताब्दी तक आँगनवाड़ी कार्यकर्ता रही थीं। पढ़ाई सिर्फ पाँचवीं तक हुई थी, लेकिन उस समय पाँचवीं पास होना ही अपने आप में बड़ी बात थी — जैसे आज कोई स्नातक हो। वे समझदार थीं, व्यवहारिक थीं, और अपने गाँव की हर महिला और हर बच्चे के लिए एक भरोसेमंद नाम थीं।
मैंने पूछा, “दादी, तब आप आँगनवाड़ी में क्या करती थीं?”
दादी की आँखों में चमक आ गई।
“हम गाँव में घर-घर जाकर बच्चों और महिलाओं को समझाते थे। क्या खिलाना है, कैसे साफ़-सफ़ाई रखनी है। उस समय आँगनवाड़ी में भुट्टे से बना दलिया मिलता था। वही बच्चों का पोषण था। तुम्हारे पापा और चाचा लोग भी वही दलिया खाकर बड़े हुए हैं। रोज़ वही बनता, हम बाँटते, और बच्चों का स्वास्थ्य अच्छा रहता था। कोई टॉनिक नहीं, कोई विदेशी चीज़ नहीं — बस दलिया और स्नेह।”
मैं चुपचाप सुनती रही। उस सादगी में जो आत्मबल था, वो आज के फैशनेबल सामानों से कहीं ज़्यादा मूल्यवान था।
तभी गली से एक लड़की गुज़री। वह रोज़ इसी समय मंदिर जाती है। गाँव की है, लेकिन अब शहर में पढ़ती है। लोग उसे ‘रामराम लड़की’ कहते हैं क्योंकि वह हर किसी को हाथ जोड़कर “रामराम” कहती है — बुज़ुर्गों से लेकर बच्चों तक। पर आज उसकी चाल कुछ बदली-बदली थी।
कंधे पर बड़ा सा ब्रांडेड पर्स था, कान में इयरफोन, हाथ में मोबाइल और चेहरे पर हल्का मेकअप। ज़माना बदल गया है, यह साफ़ दिख रहा था।
दादी ने उसे देखा, मुस्कराईं और कहा, “देखा, अब की लड़कियाँ कितना कुछ लेकर चलती हैं… पर ज़रूरत सबकी वैसी ही रहती है।”
मैंने भी देखा। लड़की का पर्स भरा हुआ था, मगर उसके चेहरे पर कुछ खालीपन था — शायद सोचों का, शायद समय का।
मैंने दादी से पूछा, “आपको लगता है आज की लड़कियाँ बदल गई हैं?”
दादी ने जवाब दिया, “बदलना बुरा नहीं है बेटा, लेकिन भीतर की जगह अगर खाली हो जाए, तो बाहर की चीज़ें काम नहीं आतीं। अब दिखावे का जमाना है — कौन क्या पहनता है, किसका पर्स कितना महँगा है, किस ब्रांड की लिपस्टिक है। लेकिन हम अपने ज़माने में सिर्फ इतना जानते थे कि क्या सही है, और क्या ज़रूरी है। सादगी, आत्मसम्मान, और थोड़ी समझ — यही हमारी ज़िन्दगी का ज़ेवर था।”
उन्होंने अपनी ब्लाउज की जेब को फिर से छुआ। “इस छोटी सी जेब ने मुझे सब सिखाया। गाँव में घर-घर जाकर जब मैं औरतों को समझाती थी, तब ये जेब ही मेरा पर्स होती थी। उसमें कुछ सिक्के, कोई दवा की पर्ची, और कभी-कभी किसी महिला की चिट्ठी। ये छोटी सी जेब ही मेरे काम की दुनिया थी।”
मुझे उनकी बात सुनकर ऐसा लगा जैसे मेरे हाथ में जो चमकता पर्स था, वो अचानक बहुत हल्का और खोखला हो गया है। उसमें भले ही बहुत कुछ था, मगर दादी की जेब में जो आत्मिक गरिमा थी, वो नहीं थी।
दादी ने कहा, “जब तुम अगली बार शहर लौटो, तो अपने कपड़ों में एक छोटी सी जेब सिलवा लेना। और उसमें कुछ ज़रूरी नहीं रखना — बस जब भी थक जाओ या खो जाओ, तो उसे छू लेना। तुम्हें अपनी दादी याद आ जाएगी, और शायद अपने आप को भी।”
मैंने दादी की उंगलियाँ थाम लीं — उन उंगलियों में न जाने कितने बच्चों का सिर सहला गया होगा, कितनी माताओं के आँसू थमे होंगे।
आज जब ‘रामराम लड़की’ की तरह हर कोई अपने हाथों में पर्स और दिलों में उलझनें लिए घूम रहा है, तब मेरी दादी की वह छोटी सी जेब जीवन का सबसे बड़ा पाठ सिखा गई — सादगी में ही शक्ति है। भुट्टे का दलिया, गाँव की गलियाँ, और एक पाँचवी पास महिला की जीवन दृष्टि — यही हमारी असली पूँजी है।
शायद हम फिर उस जेब की ओर लौट सकें — जहाँ न कोई ब्रांड था, न दिखावा — सिर्फ ज़रूरतें, समझ और आत्मा की गरिमा थी