नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि ‘काजी अदालत’, ‘दारुल कजा’, या ‘शरिया अदालत’ जैसे किसी भी निकाय को भारतीय कानून के तहत कोई वैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं है। इन संस्थाओं द्वारा दिए गए आदेश या फतवे कानूनन बाध्यकारी नहीं होते और न ही इन्हें जबरन लागू किया जा सकता है।
यह फैसला न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने उस अपील पर सुनाया, जो एक महिला द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए दायर की गई थी। हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा था, जिसमें महिला को भरण-पोषण देने से इनकार किया गया था और काजी अदालत में हुए समझौते को आधार माना गया था।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि काजी अदालतों द्वारा दिया गया कोई भी निर्णय सिर्फ तभी महत्व रख सकता है जब दोनों पक्ष स्वेच्छा से उसे स्वीकार करें, और वह भारत के मौजूदा कानूनों का उल्लंघन न करता हो। इस मामले में महिला ने 2008 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग की थी, जिसे फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि यह सोचना कि दूसरी शादी में दहेज की मांग नहीं हो सकती, पूरी तरह से काल्पनिक और असंगत है। कोर्ट ने पति को आदेश दिया कि वह पत्नी को ₹4,000 मासिक भरण-पोषण राशि दे, जो मूल याचिका दायर करने की तिथि से प्रभावी होगी।
इस ऐतिहासिक निर्णय ने न केवल शरीयत अदालतों की कानूनी सीमा स्पष्ट की, बल्कि भरण-पोषण के अधिकारों और महिला न्याय को भी सशक्त किया है।